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पाँचवें खण्ड में संकलित रसकलस (1931) मूलरूप से लक्षण ग्रन्थ की परम्परा में आता है। इसमें हरिऔध जी का काव्यत्व और आचार्यत्व एक साथ प्रकट हुआ है। रसों की विस्तृत व्याख्या के साथ उदाहरणस्वरूप स्वरचित छन्द दिये गये हैं। प्रयोग के आग्रही हरिऔध नायिका भेद में जाति सेविका और लोकसेविका जैसी कोटियों की उद्भावना करके परम्परित विधान में नये प्रयोग करते दिखाई पड़ते हैं।
Sr | Chapter Name | No Of Page |
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1 | रस- कलस | 1 |