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"आलोचना चाहे सैद्धान्तिक हो या व्यावहारिक, वह सहमति - असहम .... Read More
"आलोचना चाहे सैद्धान्तिक हो या व्यावहारिक, वह सहमति - असहमति की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया से निर्मित और विकसित होती है। यह बात भारतीय साहित्य शास्त्र के बारे में सच हैं और पश्चिमी समालोचना के सन्दर्भ में भी हिन्दी आलोचना के आज तक के इतिहास से भी यही बात जाहिर होती हैं। आलोचना में चाहे सहमति हो या असहमति, उसका साधार और सप्रमाण होना जरूरी है तभी सहमति या असहमति विश्वसनीय होती है। आलोचना की विश्वसनीयता को सबसे अधिक खतरा होता है मनमानेपन से आलोचना में तर्क-वितर्क, खण्डन- मण्डन, आरोप-प्रत्यारोप के लिए जगह होती है, पर उतनी ही जितनी विचारशीलता में सत्यनिष्ठा और सच्चाई के लिए जरूरी है। आलोचना सहमति या असहमति के नाम पर मनमाने की बात नहीं है। जब आलोचना में मनमानेपन का विस्तार होता है तो आलोचना गैर-जिम्मेदार हो जाती है। गैर-जिम्मेदार आलोचना से वैचारिक अराजकता पैदा होती है। आलोचना में सहमति असहमति का सन्तुलन तब बिगड़ता है जब खुद को सही मानने की जिद दूसरों को गलत साबित करने की कोशिश बनती है। - मैनेजर पाण्डेय "
Sr | Chapter Name | No Of Page |
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1 | इस अकाल वेला में | 9 |
2 | हिन्दी आलोचना और मुक्ति का सवाल | 6 |
3 | रचना की राजनीति | 7 |
4 | साहित्य और जनतन्त्र | 11 |
5 | उत्तर-आधुनिक समय में मध्ययुगीनता की वापसी | 11 |