सूरसागर' में 'भ्रमरगीत' का प्रसंग इस प्रकार आया है- "श्रीकृष्ण अक्रूर के साथ कंस के निमन्त्रण पर मथुरा गये और वहाँ कंस को मारकर अपने पिता वासुदेव का उद्धार किया। इसी बीच में कुब्जा नाम की, कंस की एक दासी को उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उन्होंने अपने प्रेम की अधिकारिणी बनाया। जब अवधि बीत जाने पर भी वे लौटकर गोकुल न आये तब नन्द, यशोदा तथा सारे ब्रजवासी बड़े दुखी हुए। उन गोपियों के विरह का क्या कहना है जिनके साथ उन्होंने इतनी क्रीड़ाएँ की थीं। बहुत दिनों पीछे श्रीकृष्ण ने ज्ञानोपदेश द्वारा गोपियों को समझाने-बुझाने के लिए अपने सखा उद्धव को ब्रज में भेजा। उद्धव ही को क्यों भेजा? कारण यह था कि उद्धव को अपने ज्ञान का बड़ा गर्व था। प्रेम या भक्ति मार्ग की वे उपेक्षा करते थे। कृष्ण का उन्हें गोपियों के पास भेजने में यह अभिप्राय था कि वे उनकी प्रीति की गूढ़ता और तन्मयता देखकर शिक्षा ग्रहण करें और सगुण भक्ति मार्ग की सरसता और सुगमता के सामने उनका ज्ञान-गर्व दूर हो।... उद्धव के ब्रज में दिखाई पड़ते ही सारे ब्रजवासी उन्हें घेर लेते हैं। वे नन्द-यशोदा से सन्देशा कह चुकने के उपरान्त गोपियों की ओर फिरकर कृष्ण के सन्देश के रूप में ज्ञान चर्चा छेड़ते हैं। इसी बीच एक भौंरा उड़ता-उड़ता गोपियों के पास आकर गुनगुनाने लगता है।... फिर तो, गोपियाँ मानो उसी भ्रमर को सम्बोधन करके जो जी में आता है, खरी-खोटी, उलटी-सीधी, सब सुना चलती हैं। इसी से इस प्रसंग का नाम 'भ्रमरगीत' पड़ा है। कभी गोपियाँ उद्धव का नाम लेकर कहती हैं, कभी उस भ्रमर को सम्बोधन करके कहती हैं- विशेषतः जब परुष और कठोर वचन मुँह से निकालना होता है। श्रृंगार रस का ऐसा सुन्दर उपालम्भ-काव्य दूसरा नहीं है।"
Sr | Chapter Name | No Of Page |
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1 | 'भ्रमरगीत' और 'भ्रमरगीत सार’-शिवकुमार मिश्र | 46 |
2 | भ्रमरगीत सार | 114 |
3 | चूर्णिका | 114 |